Thursday, December 20, 2012

बंद चार दिवारी में

आज इस बंद चार दिवारी में भी
खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही हूँ
पहले कुछ वहम सताते रहे हैं
अभी कमरे के सामने खड़ा विशाल पीपल का पेड़ डराता हैं
उसके ठीक निचे प्रांगण में हैं संकट मोचन वीर हनुमान और
पास ही हैं बला हरण श्री शनि देव महाराज
फिर भी इस पीपल के पत्तों  की सरसराहट
और तेज़ शीतल वायु छूते  ही जैसे चुभ सी जाती हैं
और मन को एक अनजाने भय से भर देती हैं
कुछ कदम और,
और आगे ही घाट हैं भागीरथी मैया का
वो अपने आप में ही बेहद खुबसूरत हैं और
अपने आपमें ही बहुत भयंकर भी...
सुना था इसी पानी ने लील ली हैं न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ
और देखा मैंने बड़ी बड़ी इमारतों को भी इसमें ढहे हुए

अब अपने साए से भी सहम जाता हैं दिल
धड़कने लगता हैं जोर से की ये कौन आया
कदमो की कुछ थाप पर
संभल जाता हैं मन
की न जाने कैसी आहट हो यह
बड़ी हिम्मत से कदम बढे थे
अपनी सुदूर मंजिल की तरफ
अपनों से दूर अपने डरों से दूर
आज फिर डर रहा हैं मन
अपने ही साए से भी डर हैं
की कही घेर न ले
और अब तो अपना डर बया करना भी डरावना लगता हैं
और कुछ कह पाना भी सहज नहीं लगता
शब्द जैसे नाकाफी हो
कुछ संवेदनाओं को साझा करने के लिए
या जो समझना नहीं चाहते
उन्हें कुछ भी समझाने के लिए...